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✍️ Written by: Ved
कभी-कभी कोई शख़्स ज़िंदगी में यूँ आता है जैसे कोई कविता उतर आई हो दिल में — धीरे-से, बिना शोर किए।
ये पंक्तियाँ उसी एहसास से जन्मी हैं।
जब शब्द कम पड़ जाते हैं और भावनाएँ बहने लगती हैं, तब मन खुद-ब-खुद कविता बन जाता है।
ये कविता उस एक शख़्स के लिए है — जो शब्दों से कहीं ज़्यादा है। शायद आप भी इसे पढ़कर अपने किसी "खास" को महसूस कर पाएँ।
मानो — कोई सरिता हो तुम,
हक़ीक़त जन्नत की हो?
या फिर कोई अप्सरा हो तुम?
ज़िंदगी का सपना कहूँ —
या सपनों सी हक़ीक़त हो तुम?
मानो, मेरी कविता हो तुम —
जैसे बहती सरिता हो तुम।
अबन्ध, अविचल बहती हो,
स्वच्छंद, सहज रहती हो —
ख़ुद से ख़ुद तक जाती हो,
लेकिन सीमाओं में बंधी हो तुम।
सच में, मेरी कविता हो तुम —
जैसे मेरी सरिता हो तुम।
कोई मचलती घटा हो तुम?
जैसे महकती हुई फ़िज़ा हो तुम।
मेरे लिए सहर हो तुम —
"ग़ालिब" की बहर हो तुम।
जब पूछो — “कौन हो तुम?”
मैं मुसाफ़िर — तो क्या
कोई हसीन शहर हो तुम?
मेरी पूरी कविता हो तुम —
या मेरी ही सरिता हो तुम?
सबा की पहली लाली हो तुम,
सबसे प्यारी-निराली हो तुम।
मेरा हर आरंभ हो
और अंतिम संकल्प हो तुम।
कोई हसीन तस्वीर हो तुम?
या अब मेरी तक़दीर हो तुम?
धड़कनों की सच्चाई हो ? —
या जीने की ही इज़ाजत हो तुम?
दुनिया से न्यारी होकर भी —
बिलकुल बच्चों-सी प्यारी हो।
कभी रात की चाँदनी हो तुम —
कभी जाड़े की धूप हो तुम।
कभी बस एक प्रसंग सी लगो —
कभी पूरी कहानी हो तुम।
मेरे जीवन की कविता हो तुम —
मेरी जीवन-सरिता हो तुम।
तेरा ज़िक्र आए और सुकून न मिले —
ये कैसा असर-ए-ग़ालिब हो तुम?
– एक भावनात्मक कविता, लिखी गई Ved द्वारा
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